जनता का तो बज गया बाजा,
अन्धेर नगरी, चौपट राजा..
२जी घोटाला करे ’ए राजा’,
अन्धेर नगरी, चौपट राजा..
पूछा जो उनसे, तो कहते हैं राजा,
सब करते हैं घोटाले, कोई हमको नहीं बताता..
जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…
तोहमत तो हमपर ऐसे ना लगाओ,
चोर आप हमको ऐसे ना बुलाओ.
सब खाते होंगे, मैं नहीं खाता..
जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…
पर राजा जी इतना तो बताओ,
जो चोर हैं, उनको तो हटाओ.
दुनियां सरी पहचाने है उनको, क्यों आपको ही वो नजर नहीं आता..
जनता का तो बज गया बाजा, अन्धेर नगरी, चौपट राजा…
कातिल तो एक ही था, पर खन्जर बदल गए.
कुछ इस तरह से सारे, मन्जर बदल गए..
हमको तो मिल ही जाता, वो प्यार का मोती.
बदकिस्मती अपनी, कि समन्दर बदल गए..
गर जीतना है जीतो, दिलों को मेरे दोस्त.
वतन जीतने वाले सभी, सिकन्दर बदल गए..
सच-झूठ और सारे नियम कानून.
रिश्वत मिली तो सरे, अन्तर बदल गए..
देखकर संसद की हालत, ’श्वेत’ सोचता हूँ.
जानवर बदल गए हैं, या जंगल बदल गए..
मुद्दत बाद वो हमसे मिले हैं.
जाने कैसे दिल पिघले हैं..
ये दर्द ना पूछो किसने दिये हैं.
हमने तो अपने होंठ सिले हैं..
इश्क में दीवाली पर ऐ ’श्वेत’.
दीप नहीं, दिल ही तो जले हैं..
झूठ की आँखों पर पट्टी है.
पर सच के तो होंठ सिले हैं..
दोनों जहाँ जब भटके तो समझे.
स्वर्ग तो ’माँ’ की ही गोद मिले है…
वक्त की चदर ने सब कुछ ढंक रखा है.
जैसे-जैसे,
परत-दर-परत,
ये खुलती जाती हैं..
हम भविष्य के चेहरे से,
रू-ब-रू होते जाते हैं…
और जैसे-जैसे गुजरते जाते हैं,
खो जाते हैं,
वक्त के आगोश में,
कहे-अनकहे,
सुलझे-अनसुलझे,
अनगिनत राज!!!
कुछ भी नहीं रह्ता,
संज्ञान में…
ना भविष्य,
और ना ही भूत…
ये सब वक्त का ही मायाजाल है!!
गर इसके मायाजाल से
कुछ अनछुआ है,
तो वो है,
वर्तमान!!!
जिसे हम जी सकते हैं..
महसूस कर सकते हैं…
और
बदल सकते हैं…
अपनी सोच से…..
कोई डूबता सा गर दरिया में पार होता है.
ये किसी अपने की दुआओं का असर होता है..
बस उन्ही राहों का आसान सफर होता है.
जिनको अपने पर भरोसा जो अगर होता है..
छोड हमें यहाँ, चले जाते हैं जो उस नगरी.
वहाँ रहने को क्या, उनका कोई घर होता है???…
तू करके चोरी फंसा किसी को.
मजा किसी को, सजा किसी को..
जो गर तरक्की तुझे है करना.
दबंग बनके दबा किसी को..
CWG, 2G, आदर्श, चारा.
तू कर घोटाले, फंसा किसी को..
सफेद कपडे, दिलों में कालिख.
दिखा किसी को, छुपा किसी को..
कसाब पर कर करोडों खर्चे.
कमाई किसी की, लुटा किसी को..
ये जनता तो है ही गूंगी-बहरी.
कि चाहे जैसे, नचा किसी को..
हजारों वादे हम करके मुकरे.
ना पूरा हमने किया किसी को..
भगवान है, अब तो पैसा-पावर.
कि अब तो सजदे अता इसी को..
मँहगाई कम होगी सब्सिडी से.
कि दे किसी को, लुभा किसी को..
ये काला धन रख स्विस तिजोरी में.
कि देश अपना लुटा किसी को..
मुजरिम है इस गुनह का, मंत्रि-बेटा.
कर अन्दर लगा के दफा किसी को..
फिर ’श्वेत’ तू रह गया ना तन्हा.
कब रास आई, वफा किसी को..
तू फिर आ इस धरती पर ऐ खुदारा!
बचा किसी को, मिटा किसी को..
दिल से दर्द का नाता बहोत पुराना है.
याद मुझे कोई आता बहोत पुराना है..
जाने कबसे सुन रहा हूँ लोगों की,
कोई तो सुन लो मुझे भी कुछ सुनाना है..
आँखें उसकी जाने कबसे पथरा गयी,
हँसी उडाओ उसकी उसे रुलाना है..
इश्क है उनसे बात बहोत पुरानी है,
सबने सुना पर उनको भी तो सुनाना है..
लूटो, मारो, छीनो, कटो, कत्ल करो,
राम-रहीम के चक्कर भी तो लगाना है..
कभी पेडॊं की झुरमुट में, छुप जाता है ऐसे.
छोटे बच्चे की तरह मुझको रिझा रहा हो जैसे.
और कहता है,
आज कल वक्त किसके पास है,
हमसे बात करने की...
कभी आधा तो कभी पूरा मुखडा दिखाता है
और कभी छुप जाता है
एक पखवाडे के लिए...
दूर आसमान में,
अपने आप में एकलौता,
और उसके साथ, हजारों खामोश तारे...
हाँ! वही जिसे हम बचपन में
लपकने को दौडते थे
समझकर लड्डू...
जिसमें दिखती थी हमें,
वो चरखा चलाती बुढिया,
उडते हुए संता क्लाज...
कितने बहाने थे हमारे पास
उसे देखने के,
उसकी कहानियों में, खुद को पाने की
अपनी प्रेयसी को, उस जैसा बतने की
कहां खो गयी, ये सारी बातें?
क्यों करता है वो, हमसे शिकायत??
क्यों नही है वक्त हमरे पास,
हमरे बचपन के साथियों के लिए???
जरा सोचकर देखियेगा...
कभी तो अश्क की रहों में, इक मुस्कान ले के आ.
इस कन्क्रीट के जंगल में, इक इन्सान ले के आ..
ना मन्दिर ला, ना मस्जिद ला, ना गुरूद्वारे, ना गिरिजाघर.
जो ला सकता है तो सचमुच का कोई, भगवन ले के आ..
शहर से दूर शमसानों में ही जिन्दा है अब सुकूं.
शहर ला दो सुकूं का या कि फिर शमसान ले के आ..
नहीं आता है मिलने, हमसे कोई, रहते हैं तन्हा हम.
इस कॉफी के टेबल पर, कोई मेहमान ले के आ..
इस घर में भी, रिश्ते सभी परये हो गये.
घर कह सकूं, ऐसा कोई मकान ले के आ..
खत्म हो जाए दुनियां से, ये भ्रष्टाचार, ये नफरत.
ऐ मेरे ”श्वेत” जा ऐसा कोई वरदन ले के आ..
इस दौडते फिरते शहर में.
तन्हाई का मेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला हूँ मैं…
कन्क्रीट का जंगल है ये.
अमानवता का संदल है ये..
इससे परे इस शहर में.
मानवता का झमेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला हूँ मैं…
तन्हा चला हूँ राहों पर मैं.
खुद को बचकर स्याहों से मैं..
अन्धेरे से इस शहर में.
उगता हुआ सवेरा हूँ मै..
इस शहर मे अकेला हूँ मैं…