Monday 7 December 2015

सोचो गर ऐसा होता... -- Socho gar aisa hota












सोचो गर ऐसा होता...
रात पर भी सुबह की किरणों का पहरा होता,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

एक कोने साँझ होती, एक कोने रात होती।
गले मिलते धुप-छाँव, एक शहर और एक गाँव,
एक इधर, एक उधर पाँव...
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

चलते हम बादल के ऊपर, ज़मीं पर हम तैरते,
लाख सरहद हमको रोके, हम कहीं न ठहरते।
फैला के पंख, उड़ जाते, हम अगर सागर में तो,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

खुशियाँ ही खुशियाँ होतीं, ग़म में भी हँसते हम,
आंसुओं को बना मोती, जेब में गर रखते हम,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

अंधों को भी रंग दिखते, बहरे भी सुनते ग़ज़ल,
तारे जमीं पर टिमटिमाते, बादलों पर खिलते कँवल.
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

स्वर्ग पर इंसान रहते, और ख़ुदा ज़मीन पर...
सोचो फिर कैसा होता,
सोचो गर ऐसा होता...

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Tuesday 21 April 2015

ये दिल जो कहे हम करते रहें...

कुछ कह ना सकूँ, चुप रह ना सकूँ !
ना इसमे सुकूं, ना उसमे सुकूं  !!
किस कफ़स ने मुझको बाँध रखा,
कि आग हूँ मैं, पर जल ना सकूँ !!

इक सोच, जो मेरी ज़हन में है !
हालत, जो मेरे सहन में है !!
एक मैं हूँ जो, मैं हूँ ही नहीं,
एक कैद, जो मेरी रहन में है !!

अभी हूँ मैं खुद से ज़ुदा-ज़ुदा !
हूँ ख़फा, मगर मैं ख़फा नहीं !!
किस रात ने मुझको घेर रखा,
है सुबह, मगर हुई सुबह नहीं !!

एक टायर फिर मैं सड़क रखूं !
ले छड़ी मैं पीछे दौड़ पडूँ !!
फिर इंटरवल की घंटी पर,
मैं बाउंड्री वॉल को फांद चलूँ!!

फिर कन्चों की एक फ़ौज़ सजे !
फिर गिल्ली डण्डा लीग बने !!
फिर दिए छुपाऊँ मिटटी में,
फिर काग़ज़ की एक नांव बने !!

ना सुबह के 6, ना रात के 10 !
कोई कहने वाला ना हो बस !!
ये दिल जो कहे हम करते रहें,
आज़ाद फिरें हम तोड़ कफ़स !!

ये दिल जो कहे हम करते रहें,
आज़ाद फिरें हम तोड़ कफ़स !!