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Monday 28 May 2012

वर्तमान!!!


वक्त की चदर ने सब कुछ ढंक रखा है.
जैसे-जैसे,
परत-दर-परत,
ये खुलती जाती हैं..
हम भविष्य के चेहरे से,
रू-ब-रू होते जाते हैं…
और जैसे-जैसे गुजरते जाते हैं,
खो जाते हैं,
वक्त के आगोश में,
कहे-अनकहे,
सुलझे-अनसुलझे,
अनगिनत राज!!!
कुछ भी नहीं रह्ता,
संज्ञान में…
ना भविष्य,
और ना ही भूत…
ये सब वक्त का ही मायाजाल है!!
गर इसके मायाजाल से
कुछ अनछुआ है,
तो वो है,
वर्तमान!!!
जिसे हम जी सकते हैं..
महसूस कर सकते हैं…
और
बदल सकते हैं…
अपनी सोच से…..

Thursday 24 May 2012

याद मुझे कोई आता बहोत पुराना है…

दिल से दर्द का नाता बहोत पुराना है.
याद मुझे कोई आता बहोत पुराना है..
जाने कबसे सुन रहा हूँ लोगों की,
कोई तो सुन लो मुझे भी कुछ सुनाना है..
आँखें उसकी जाने कबसे पथरा गयी,
हँसी उडाओ उसकी उसे रुलाना है..
इश्क है उनसे बात बहोत पुरानी है,
सबने सुना पर उनको भी तो सुनाना है..
लूटो, मारो, छीनो, कटो, कत्ल करो,
राम-रहीम के चक्कर भी तो लगाना है..

Wednesday 23 May 2012

जरा सोचकर देखियेगा…


कभी पेडॊं की झुरमुट में, छुप जाता है ऐसे.
छोटे बच्चे की तरह मुझको रिझा रहा हो जैसे.
और कहता है,
आज कल वक्त किसके पास है,
हमसे बात करने की...
कभी आधा तो कभी पूरा मुखडा दिखाता है
और कभी छुप जाता है
एक पखवाडे के लिए...
दूर आसमान में,
अपने आप में एकलौता,
और उसके साथ, हजारों खामोश तारे...
हाँ! वही जिसे हम बचपन में
लपकने को दौडते थे
समझकर लड्डू...
जिसमें दिखती थी हमें,
वो चरखा चलाती बुढिया,
उडते हुए संता क्लाज...
कितने बहाने थे हमारे पास
उसे देखने के,
उसकी कहानियों में, खुद को पाने की
अपनी प्रेयसी को, उस जैसा बतने की
कहां खो गयी, ये सारी बातें?
क्यों करता है वो, हमसे शिकायत??
क्यों नही है वक्त हमरे पास,
हमरे बचपन के साथियों के लिए???
जरा सोचकर देखियेगा...

Tuesday 22 May 2012

इस शहर मे अकेला हूँ मैं…


इस दौडते फिरते शहर में.
तन्हाई का मेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला  हूँ मैं…
कन्क्रीट का जंगल है ये.
अमानवता का संदल है ये..
इससे परे इस शहर में.
मानवता का झमेला हूँ मैं..
इस शहर मे अकेला  हूँ मैं…
तन्हा चला हूँ राहों पर मैं.
खुद को बचकर स्याहों से मैं..
अन्धेरे से इस शहर में.
उगता हुआ सवेरा हूँ मै..
इस शहर मे अकेला  हूँ मैं…