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Monday 7 December 2015

सोचो गर ऐसा होता... -- Socho gar aisa hota












सोचो गर ऐसा होता...
रात पर भी सुबह की किरणों का पहरा होता,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

एक कोने साँझ होती, एक कोने रात होती।
गले मिलते धुप-छाँव, एक शहर और एक गाँव,
एक इधर, एक उधर पाँव...
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

चलते हम बादल के ऊपर, ज़मीं पर हम तैरते,
लाख सरहद हमको रोके, हम कहीं न ठहरते।
फैला के पंख, उड़ जाते, हम अगर सागर में तो,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

खुशियाँ ही खुशियाँ होतीं, ग़म में भी हँसते हम,
आंसुओं को बना मोती, जेब में गर रखते हम,
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

अंधों को भी रंग दिखते, बहरे भी सुनते ग़ज़ल,
तारे जमीं पर टिमटिमाते, बादलों पर खिलते कँवल.
सोचो फिर कैसा होता, सोचो गर ऐसा होता...

स्वर्ग पर इंसान रहते, और ख़ुदा ज़मीन पर...
सोचो फिर कैसा होता,
सोचो गर ऐसा होता...

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Wednesday 1 January 2014

गए साल की तरह....

गये वक़्त ने हमें, हँसाया भी-रूलाया भी,
जो गिरे कभी, तो बढ़कर हमें उठाया भी।
सोच को रोज एक नया आयाम दिया,
थक गए जो, तो गोद में अपने आराम दिया।
अब ये वक़्त कुछ नया ले के आएगा,
पलकें अपनी सभी की राह में बिछाएगा।
है नया साल अपने वक़्त को पकड़ लीजै,
जो हैं अपने बढ़के दामन उनका थाम लीजै
ये ना रुकता है, जो आज है तो कल नहीं होगा,
गए साल की तरह नया साल भी कल नहीं होगा।।

Tuesday 14 May 2013

सभ्य समाज!!!-1

कितनी दफ़े मैं सोचता हूँ,
तेरे साथ चलूँ,
पर हर बार,
तू मुझसे आगे निकल जाता है.
पता नहीं, ये तुम्हारी आदत है,
या तुम मुझे साथ लेना नहीं चाहते,
या कुछ और,
पता नहीं…

याद है,
बचपन में तुम मेरा इन्तज़ार करते थे-
अगर मैं, पीछे रह जाऊं…
मैं आगे भी निकल जाता,
तो तुम दौड़कर मेरे पास आ जाते,
मेरे साथ चलने के लिए,
मुझे साथ लेने के लिये…

पर अब क्या हो गया है?
क्यों तुम भी आगे निकलने की होड़ में,
अपनों को भूल गए हो?
क्या अब तुम्हे रिश्तो के साथ चलना, अच्छा नहीं लगता?

क्या अब तुम भी बन गए हो,
इस सभ्य समाज का हिस्सा?
जहाँ अपने सिवाय, अपनों की क़द्र ही नहीं होती।
क्या तुम भी ???

Wednesday 10 April 2013

लबों की हताशा...

सफ़हे में लिपटी है, लम्हों की बातें, 
लम्हों की बातें, सदियों की बातें।
बातें, जो पूरी हुई ही नहीं,
बातें, जो अधूरी रह गयी।
बातें, जो कह गयी अनकही,
बातें, जुबां तक, जो रह गयी।
फिर भी हमको इसपर ना यकीं है,
कि तुमने उस बात को, समझा नहीं है।
जो समझे ना थे तो, पलकें क्यों झपी थी।
पल भर को सांसे, क्यों थम सी गयी थी।।
लबों पर तबस्सुम, ठहर क्यों गयी थी।
और चूड़ियाँ, क्यों सहम सी गयी थी।।
जब मैंने समझ ली उन आँखों की भाषा,
तो कैसे इसपर यकीं मैं करूँ,
कि तुमने ना समझी, लबों की हताशा...
कि तुमने ना समझी, लबों की हताशा...

Monday 18 February 2013

मुस्कुराने के वजह!!!

मुस्कुराने के वजह!!!
पहले बहोत से थे,
कभी नन्ही सी तितली को देखकर
उसके पीछे भागना,
तो कभी,
खाली माचिस की डिबिया को उछालना...
कभी सन्तरे वाली टॉफी पाकर
यूँ लगता, जैसे सबकुछ तो मिल गया है.
तो कभी
अंगूर के गुच्छे पाकर!

कभी चीनीवाली वो मिठाई,
तो कभी रामनारायन चाचा के यहाँ की जलेबी...
वो कंचे, वो गिल्ली-डंडा,
वो दिवाली के दिए,
वो पाँच छोटे-छोटे पत्थर के टुकड़े,
वो कागज़ से तरह-तरह के बने खिलौने,
और ना जाने क्या-क्या!!

खुशियाँ बहोत छोटी-छोटी थीं,
पर उनसे जिस्म ही नहीं,
रूह तक मुस्कुरा उठती थी...
और यूँ लगता,
जैसे और कुछ चाहिए ही नहीं,
सब कुछ तो मिल गया है!!!

पर आज,
खुशियाँ कितनी सिमट गयी हैं,
तीन साल में मिला कोई Promotion.
दो साल में पूरा किये हुए
किसी Project के लिए Boss की बधाई.
पुरे साल भर में Achieve किया हुआ कोई Target..
और महीने की पहली तारीख को आई हुई Salary ...

और उसपर भी ये ग़म,
कि पहले सप्ताह में सब ख़तम...

शायद,
कुछ ज़्यादा पाने की ख़्वाहिश में,
जो थोड़ा पास था वो भी गंवा बैठे हैं.
आँखों में लिए फिरते हैं समन्दर,
और Plastic Smile से सब छुपा बैठे हैं..
मुस्कुराने के वजह तो कुछ भी ना थे,
बेवजह ही हम मुस्कुरा बैठे हैं...
बेवजह ही हम मुस्कुरा बैठे हैं...

Muskurane ke wajah in my voice.

Sunday 3 February 2013

ज़िन्दगी के कैनवास पर...



ज़िन्दगी के कैनवास पर,
आते, अपलक दृश्य...
हँसते-हंसाते,
रोते-रुलाते,
गाते-गुनगुनाते,
दिखाते हैं वो मंज़र,
जिनसे बन सके,
एक, सम्पूर्ण चित्र...
पर, रह जाती है, अधूरी!
हमारे लिहाज से...
क्योंकि,
नहीं मिलाती,
हमारी सोच,
हमारी ज़िन्दगी की शक्ल से....

Thursday 31 January 2013

सभ्य समाज...

हमें चिढ़ है,
भेड़ चाल से,
तभी तो हम रहते हैं,
हमेशा, जल्दी में,
आगे निकलने की होड़ में...
दूसरों का रास्ता काटते हुए,
या,
उन्हें पीछे धकेलते हुए,
हॉर्न बजाते हुए...
क्योंकि,
हम निर्माण कर रहे हैं,
एक सभ्य समाज का...

Sunday 13 January 2013

भटकन...

कल रात, कोई आह सी जल रही थी।
जैसे, कोई शम्मा सी पिघल रही थी।
कई मरासिम से जैसे छूट रहे थे।
कुछ अपने, अपनों से रूठ रहे थे।
कुछ मदहोश लोग, होश की बातें कर रहे थे।
ज़ज्बे नहीं पर जोश की बातें कर रहे थे।
अच्छे लम्हे, बुरे लम्हों से शिकायत कर रहे थे।
कभी खुद से, कभी औरों से अदावत कर रहे थे।
लोगों में देखा बहोत रोष था।
फ़क़त कुछ ही दिनों का ये आक्रोश था।
हाँ! चले थे सभी रौशनी की तरफ,
पर वो जुगनू से ज्यादा कुछ नहीं था।
पर वो जुगनू से ज्यादा कुछ नहीं था।।


Sunday 23 December 2012

मुझे मंज़िल की तलाश नहीं!!!


ये सच है,
मुझे मंज़िल की तलाश नहीं! 


क्योंकि, मंज़िलों पर पहुंचकर, 
 बैठ जाते हैं, लोग...
आराम से,
इत्मिनान से,
बेफिक्र!
जैसे, 
करने को कुछ, बचा ही ना हो।

मैं तो चाहता हूँ,
चलना, उन रास्तों पर,
जो जाती तो हो,
मंज़िल की ओर,
पर पहुंचती ना हो!!
क्योंकि, मैं नहीं चाहता,
आराम से बैठ जाना।
चाहता हूँ, भटकते रहना,
अपनी मंज़िल के लिए।।।
ताकि,
ढूँढ सकूँ,
और भी,
अनगिनत,
अनभिज्ञ रास्ते,
जो जाते हों,
मंजिल की ओर।

क्योंकि,
मेरी जिज्ञासा, सिर्फ मंज़िल पाने की नहीं,
बल्कि,
उस तक पहुँचने के,
अनगिनत रास्ते खोजने की है... 

Friday 30 November 2012

जबकि, जानता हूँ...

रात को जब, लेटता हूँ,
तो छत पर तारे दिखते हैं,
और मैं, उन्हें गिनता हूँ।
जबकि, जानता हूँ, गिन नहीं पाउँगा।।।

सुबह मेरे ऑफिस के टेबल पर,
काग़ज के फूल खिले होते हैं,
और मैं, उन्हें सूंघ लेता हूँ,
जबकि, जानता हूँ, वो नकली हैं।।।

राह में जब, कोई भिखारी दिखता है,
ज़ेब से निकाल कर चंद सिक्के,
उसकी ओर उछाल कर,
बहोत गौरवान्वित महसूस करता हूँ,
जबकि, जानता हूँ,
उस दो रूपये के सिक्के से,
उसका पेट नहीं भरेगा।।।

रोज सुबह ऑफिस जाता हूँ,
रात देर से घर आता हूँ,
बनाता हूँ, खाता हूँ, और सो जाता हूँ,
जबकि, जानता हूँ,
ये मेरी ज़िन्दगी नहीं,
फिर भी, जीता हूँ।।।

हम हमेशा, वो सब कहते हैं,
समझते हैं, और करते हैं,
जो हम नहीं चाहते।।।

और, कभी नहीं सुनते,
समझते, कहते, और करते,
जो, हमारा दिल चाहता है।।।

मेरे पेट से...

कभी-कभी, मेरे पेट से,
कुछ आवाज़ें आती हैं।
जब मैंने, किसी एक वक़्त का,
भोजन, नहीं कर पाया होता है। (किन्ही कारणों से)

तब सोचता हूँ,
ये इतना भी मजबूर नहीं,
जितना,
एक वक़्त का खाना ना खाकर,
अपने बच्चों को ज़िन्दगी देनेवाले माँ-बाप।

जितना,
कई दिनों से भूखा बैठा हुआ भिखारी।
फिर भी मेरा पेट तो, गुडुर-गुर्रररर करके,
अपनी बात कह लेता है।

पर वो लोग,
कभी अपनी व्यथा नहीं कहते,
ना किसी से,
ना अपने-आप से।।।

रोज रात...

रोज रात,
जो सितारे, आसमां पर चमकते हैं,
आ जाते हैं, मेरे कमरे में,
और चमकते हैं, छत से चिपककर,
और मैं, उन्हें टकटकी बांधे देखता हूँ।
शायद, वो भी मुझे देखते होंगे।

उनके आने का सबब,
ना तो उन्होंने मुझे बताना ज़रूरी समझा,
और, ना मैंने, जानना।

ज़रूरी था, तो बस,
उनका यूँ ही रोज, आ जाना,
और मेरा उनको, टकटकी बांधे देखना।
बिना किसी शक, और सवाल के।।।