गाँवों की पगडंडियों पर मुझे घुमाते, मेरे पापा.
चार आने की चार टाफियां खिलाते, मेरे पापा..
पकड के उँगली मुझे स्कूल ले जाते, मेरे पापा.
बचपन में ही डाक्टर, इंजीनियर बनाते, मेरे पापा..
मेरी गलतियों पर मुझे चपत लगाते, मेरे पापा.
कुछ अच्छा करने पर पीठ थपथपाते, मेरे पापा..
जब कुछ बडा हुआ गलत सही समझाते, मेरे पापा.
दुनियां के हर शय से परिचित कराते, मेरे पापा..
अब मैं बडा हो गया हूँ,
अपने पैरों पर खडा हो गया हूँ.
तो बस यही सोचता हूँ,
क्या मैं बन पाउँगा, जैसे हैं मेरे पापा?
क्या मैं अपने बच्चे को वो सब दे पाउँगा?
क्या मैं मेरे पापा की तरह अच्छा पापा बन पाउँगा??
क्या मैं बन पाउँगा,
मेरे बच्चे के लिए...
मेरे पापा....
हाल-ए-दिल अपना, सुनाने की इजाजत नहीं है.
हमें दुःख अपना, बताने की इजाजत नहीं है..
उन्हें फुरसत नहीं है, हमपर सितम करने से.
और हमें, छटपटाने की भी इजाजत नहीं है..
वो हमें लूटें, कि मारें, या चाहे कत्ल कर दें.
सर हमें अपना उठाने की इजाजत नहीं है..
अधिकार बोलने का सुरक्षित है, अब तो संसद में.
आवाम को तो खुसफुसाने की भी इजाजत नहीं है..
फुरकत में वो आज इतना है कि, मिलने को आता नहीं.
और हमको उसके पास, जाने की भी इजाजत नहीं है..
वो मजाक कर रहे हैं, देश के भविष्य से और.
कार्टून भी हमें उनका, बनाने की इजाजत नहीं है..
जो वदों से अपने मुकर जाए, वो जुबान क्या होगी.
बुनियाद जिसकी खोखली हो, वो मकान क्या होगी..
छाया तलक ना दे सके, वो वृक्ष है किस काम का.
दो बूंद को तरसे जमीं, वो आसमान क्या होगी..
फैला हुआ असमानता का जाल हो जिस देश में.
है सोचने की बात, वहाँ का संविधान क्या होगी..
हर फिक्र छोडकर के, सो जाता है ’श्वेत’ जिस जगह.
माँ के आँचल के सिवा, कोई और जहान क्या होगी..
रावण भरे पडे हैं यहाँ, राम के मुखौटों में.
है ’श्वेत’ सोच में पडा, विधि का विधान क्या होगी..
जिन्दगी की राह में, हमसफर कई आए गये.
हम अभी तक हैं वहीं, मंजर कई आए गये..
एक वही आया नहीं, आने का अहद जो कर गया.
वगरना दोस्त-औ-अदूं, इधर कई आए गये..
जिन्दगी में गम का कोहराम है कुछ इस कदर.
कि रात है बस रात है, सहर कई आए गये..
हर कोई समझे है बेहतर, जाने क्यों अपने आप को.
पर सच है 'श्वेत' कि यहाँ, बेहतर कई आए गये..
सितम सह के तू जिया ना कर.
जहर के घूँट यूं पिया ना कर..
खुद ही उठा ले शमशीर अपने हाथों में.
करे कोई हिफाजत ये इल्तेजा ना कर..
आप ना उठाई आवाज जुल्म के खिलाफ तो.
इल्जाम दूसरों पर तू किया ना कर..
सजा-ए-मौत है मन्जूर मुझे ऐ ’श्वेत’.
बद्दुआ जीने की मुझको दिया ना कर..
एक नया सा जहाँ बसायेंगे.
शामियाने नये सजायेंगे..
जहाँ खुशियों की बारिशें होंगी.
गम की ना कोई भी जगह होगी..
रात होगी तो बस सुकूं के लिये.
खिलखिलाती हुई सुबह होगी..
कोई किसी से ना नफरत करेगा.
करेगा प्यार, मोहब्बत करेगा..
जहाँ बच्चे ना भूखे सोयेंगे.
अपना बचपन कभी ना खोयेंगे..
देश का होगा, विकास जहाँ.
नेता होंगे सुभाष जैसे जहाँ..
जुल्म की दस्तां नहीं होगी.
अश्क से आँख ना पुरनम होगी..
राम-रहीम में, होगा ना कोई फर्क यहाँ.
ऐ खुदा तू भी, रह सकेगा जहाँ – २..
ना बना पाये, इस धरती को हम, स्वर्ग तो क्या.
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…
कोई नहीं कुछ करता है, इस बात पर रोते रह्ते हैं.
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं..
उस पर बीत रही है, उससे हमको क्या लेना-देना.
इस पचडे में पडने से, अच्छा है यारा दूर रहना..
कर्तव्यों से मुंह चुराकर अपना, हम सबकुछ खोते रह्ते हैं…
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं..
गर आग पडोस में लगी है, अपने घर तक तो आनी ही है.
रेत में मुंह छुपा लेना, ये बात तो बेमानी ही है..
क्यों अत्याचारों का बोझ, हम जीवन भर ढोते रहते हैं???
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…
इन्सां वो भी, इन्सां हम भी, वो एक हैं, हम हैं अनेक.
क्यों ना मिलकर हम सब, बन जयें एक ताकत नेक..
नींद उडा दें उनकी, जो हमें लडाकर, चैन से सोते रहते हैं…
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…
हक नहीं है हमको उन पर, उंगलियां उठाने का.
जब उनको हम, आगे बढने का मौका देते रहते हैं..
पर जब तक आप ना बीते, तब तक हम सोते ही रह्ते हैं…