Friday 26 October 2012

शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...


ईमान फिर किसी का नंगा हुआ है.
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है..
शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है..
फिर से गलियां देखो खूनी हुई हैं.
गोद कितने मांओं की सूनी हुई हैं..
उस इन्सान का, क्या कोई बच्चा नहीं है?
वो इन्सान क्या, किसी का बच्चा नहीं है??
हाँ, वो किसी हव्वा का ही जाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
लोथड़े मांस के लटक रहे हैं.
खून किसी खिडकी से टपक रहे हैं..
आग किसी की रोज़ी को लग गयी है.
कोई बिन माँ की रोजी सिसक रही है..
हर एक कोने आप में ठिठक गये हैं.
बच्चे भी अपनी माँओं से चिपक गये हैं..
इन्सानियत का खून देखो हो रहा है.
ऊपर बैठा वो भी कितना रो रहा है..
दूर से कोई चीखता सा आ रहा है.
खूनी है, या जान अपनी बचा रहा है..
और फिर सन्नाटा सा पसर गया है.
जो चीख रहा था, क्या वो भी मर गया है??
ये सारा आलम उस शख्स का बनाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
वक्त पर पोलीस क्यों नहीं आई?
क्योंकी, ये कोई ऑपरेशन मजनूं नहीं था..
नेताओं ने भी होंठ अपने बन्द रक्खे.
क्योंकि, खून से हाथ उनके भी थे रंगे..
सरकार भी चादर को ताने सो रही थी.
उनको क्या, ग़र कोई बेवा हो रही थी..
पंड़ित औ मौलवी भी थे चुपचाप बैठे.
आप ही आप में दोनों थे ऐंठे..
हमने भी, अपना आपा खो दिया था.
जो हो रहा था, हमने वो खुद को दिया था..
दोषी हम सभी हैं, जो दंगे हुए हैं.
ईमान हम सभी के ही, नंगे हुए हैं..
खून से हाथ हमसभी के ही, रंगे हुए हैं...
पर दंगे का वो सबसे बड़ा सरमाया है.
वो एक पत्थर, पहला जिसने चलाया है.
ईमान बस उसी का ही नंगा हुआ है.. शहर में सुना है फिर दंगा हुआ है...
चंद सिक्कों की हवस, और कुछ नहीं था.
हिन्दू ना मुसलमां, कोई कुछ नहीं था..
हिन्दू नहीं, जो इन्सान को इन्सां ना समझे.
मुसलमां नहीं, जो इन्सानियत को ईमां ना समझे..
आपस में लड़ाये धर्म है हैवानियत का.
प्यार ही इक धर्म है इन्सानियत का..
हम कब तलक ऐसे ही सोते रहेंगे?
भड़कावे में गैरों के, अपनों को खोते रहेंगे??
बेशर्मों से तब तलक हम नंगे होते रहेंगे?
बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!! बहकावे में जब तलक दंगे होते रहेंगे!!!
मेरे शहर फ़ैज़ाबाद में हुए दंगे से द्रवित और दुःखित -  सुनील गुप्ता 'श्वेत'

Monday 18 June 2012

मेरे पापा....


गाँवों की पगडंडियों पर मुझे घुमाते, मेरे पापा.
चार आने की चार टाफियां खिलाते, मेरे पापा..
पकड के उँगली मुझे स्कूल ले जाते, मेरे पापा.
बचपन में ही डाक्टर, इंजीनियर बनाते, मेरे पापा..
मेरी गलतियों पर मुझे चपत लगाते, मेरे पापा.
कुछ अच्छा करने पर पीठ थपथपाते, मेरे पापा..
जब कुछ बडा हुआ गलत सही समझाते, मेरे पापा.
दुनियां के हर शय से परिचित कराते, मेरे पापा..
अब मैं बडा हो गया हूँ,
अपने पैरों पर खडा हो गया हूँ.
तो बस यही सोचता हूँ,
क्या मैं बन पाउँगा, जैसे हैं मेरे पापा?
क्या मैं अपने बच्चे को वो सब दे पाउँगा?
क्या मैं मेरे पापा की तरह अच्छा पापा बन पाउँगा??
क्या मैं बन पाउँगा,
मेरे बच्चे के लिए...
मेरे पापा....

Friday 15 June 2012

हमें, इजाजत नहीं है !!!


हाल-ए-दिल अपना, सुनाने की इजाजत नहीं है.
हमें दुःख अपना, बताने की इजाजत नहीं है..
उन्हें फुरसत नहीं है, हमपर सितम करने से.
और हमें, छटपटाने की भी इजाजत नहीं है..
वो हमें लूटें, कि मारें, या चाहे कत्ल कर दें.
सर हमें अपना उठाने की इजाजत नहीं है..
अधिकार बोलने का सुरक्षित है, अब तो संसद में.
आवाम को तो खुसफुसाने की भी इजाजत नहीं है..
फुरकत में वो आज इतना है कि, मिलने को आता नहीं.
और हमको उसके पास, जाने की भी इजाजत नहीं है..
वो मजाक कर रहे हैं, देश के भविष्य से और.
कार्टून भी हमें उनका, बनाने की इजाजत नहीं है..

Tuesday 12 June 2012

बुनियाद जिसकी खोखली हो, वो मकान क्या होगी..


जो वदों से अपने मुकर जाए, वो जुबान क्या होगी.
बुनियाद जिसकी खोखली हो, वो मकान क्या होगी..
छाया तलक ना दे सके, वो वृक्ष है किस काम का.
दो बूंद को तरसे जमीं, वो आसमान क्या होगी..
फैला हुआ असमानता का जाल हो जिस देश में.
है सोचने की बात, वहाँ का संविधान क्या होगी..
हर फिक्र छोडकर के, सो जाता है ’श्वेत’ जिस जगह.
माँ के आँचल के सिवा, कोई और जहान क्या होगी..
रावण भरे पडे हैं यहाँ, राम के मुखौटों में.
है ’श्वेत’ सोच में पडा, विधि का विधान क्या होगी..

Monday 11 June 2012

बेहतर कई आए गये...


जिन्दगी की राह में, हमसफर कई आए गये.
हम अभी तक हैं वहीं, मंजर कई आए गये.. 
एक वही आया नहीं, आने का अहद जो कर गया.
वगरना दोस्त-औ-अदूं, इधर कई आए गये..
जिन्दगी में गम का कोहराम है कुछ इस कदर.
कि रात है बस रात है, सहर कई आए गये..
हर कोई समझे है बेहतर, जाने क्यों अपने आप को.
पर सच है 'श्वेत' कि यहाँ, बेहतर कई आए गये..

Sunday 10 June 2012

सितम सह के तू जिया ना कर…


सितम सह के तू जिया ना कर.
जहर के घूँट यूं पिया ना कर..
खुद ही उठा ले शमशीर अपने हाथों में.
करे कोई हिफाजत ये इल्तेजा ना कर..
आप ना उठाई आवाज जुल्म के खिलाफ तो.
इल्जाम दूसरों पर तू किया ना कर..
सजा-ए-मौत है मन्जूर मुझे ऐ ’श्वेत’.
बद्दुआ जीने की मुझको दिया ना कर..

एक नया सा जहाँ बसायेंगे…


एक नया सा जहाँ बसायेंगे.
शामियाने नये सजायेंगे..
जहाँ खुशियों की बारिशें होंगी.
गम की ना कोई भी जगह होगी..
रात होगी तो बस सुकूं के लिये.
खिलखिलाती हुई सुबह होगी..
कोई किसी से ना नफरत करेगा.
करेगा प्यार, मोहब्बत करेगा..
जहाँ बच्चे ना भूखे सोयेंगे.
अपना बचपन कभी ना खोयेंगे..
देश का होगा, विकास जहाँ.
नेता होंगे सुभाष जैसे जहाँ..
जुल्म की दस्तां नहीं होगी.
अश्क से आँख ना पुरनम होगी..
राम-रहीम में, होगा ना कोई फर्क यहाँ.
ऐ खुदा तू भी, रह सकेगा जहाँ – २..
ना बना पाये, इस धरती को हम, स्वर्ग तो क्या.
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…
इन्सां के रहने के, काबिल तो बना सकते हैं…