Sunday 10 February 2013

कुछ शे'र मार रहा हूँ...

"तुझे पा ना सका, ये ग़म है मुझे,
तेरा नाम मगर, मरहम है मुझे..."

"ना कर इतना गुमां, पलकों पे मेरी, चढ़ के तू ऐ अश्क,
कि चढ़ आया है नज़रों में, तो तू उतर भी सकता है..."

"ना पूछिये, है कितना असर, मेरा मुझपर,
मैं ऐसा दर्द हूँ, जो खुद पे भी बेदर्द रहा..."

"इक आरजू है, कि आरजू ना रहे,
बहोत किया है ख़स्ताहाल, आरजू ने तेरी..."

"इस रफ़्तार से चलता है, दुनियां का कारवां,
दो पल पुराने ग़म भी, ठहरते नहीं पल भर..."

"ज़ज्बात-ए-जिस्म के तजुर्बे लेकर,
आखिरश रूह की दुनियां में आना ही पड़ा..."

                                                                    ........आगे भी ज़ारी रखूँगा...

Sunday 3 February 2013

ज़िन्दगी के कैनवास पर...



ज़िन्दगी के कैनवास पर,
आते, अपलक दृश्य...
हँसते-हंसाते,
रोते-रुलाते,
गाते-गुनगुनाते,
दिखाते हैं वो मंज़र,
जिनसे बन सके,
एक, सम्पूर्ण चित्र...
पर, रह जाती है, अधूरी!
हमारे लिहाज से...
क्योंकि,
नहीं मिलाती,
हमारी सोच,
हमारी ज़िन्दगी की शक्ल से....

Thursday 31 January 2013

सभ्य समाज...

हमें चिढ़ है,
भेड़ चाल से,
तभी तो हम रहते हैं,
हमेशा, जल्दी में,
आगे निकलने की होड़ में...
दूसरों का रास्ता काटते हुए,
या,
उन्हें पीछे धकेलते हुए,
हॉर्न बजाते हुए...
क्योंकि,
हम निर्माण कर रहे हैं,
एक सभ्य समाज का...

Sunday 13 January 2013

भटकन...

कल रात, कोई आह सी जल रही थी।
जैसे, कोई शम्मा सी पिघल रही थी।
कई मरासिम से जैसे छूट रहे थे।
कुछ अपने, अपनों से रूठ रहे थे।
कुछ मदहोश लोग, होश की बातें कर रहे थे।
ज़ज्बे नहीं पर जोश की बातें कर रहे थे।
अच्छे लम्हे, बुरे लम्हों से शिकायत कर रहे थे।
कभी खुद से, कभी औरों से अदावत कर रहे थे।
लोगों में देखा बहोत रोष था।
फ़क़त कुछ ही दिनों का ये आक्रोश था।
हाँ! चले थे सभी रौशनी की तरफ,
पर वो जुगनू से ज्यादा कुछ नहीं था।
पर वो जुगनू से ज्यादा कुछ नहीं था।।


Monday 7 January 2013

मैं अनलहक हूँ...

मैं,
अनलहक* हूँ...
सच तो यही है,
ना, मानने की बात है।
दुनियां,
इसी बात से खफा होती है,
और कभी,
इसी बात को स्वीकार करती है;
उसकी मर्जी की बात है।
मन आया,
मान गया,
वगर-ना,
ज़हर का प्याला...
कभी सर कलम...
और कभी,
सूली पर लटका दिया...
और जब उसे,
अपनी इस करतूत से शांति मिल गयी;
तो बुत बनाया,
और शुरू कर दिया,
उसे, 
पूजने का ढकोसलापन।।।

*अनलहक - मैं इश्वर हूँ।

Monday 31 December 2012

हाय! री ये किस्मत...

ये गाना दिल्ली गैंग रेप पीड़ित दिवंगत दामिनी को श्रधान्जली है।
हाय! री ये किस्मत...


कब तक लुटेगी अस्मत, 
हाय! री ये किस्मत...
अब इक नए वक़्त का आगाज़ करना है।
अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।।

यूँ ना कोई नोचे, यूँ ना कोई दबोचे।
हममें भी एक जान है, हर कोई ऐसा सोचे।।
हवस के गलों पर तमाचा जड़ना है।
अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।। 
आवाज़ करना है, आगाज़ करना है।।

अब तय कर लिया है, हमने सबक लिया है।
सदियों से सह रहे थे, अब नहीं सहना है।।
अपनी आज़ादी का परवाज़ करना है।

अत्याचार के खिलाफ आवाज़ करना है।। 
आवाज़ करना है, आगाज़ करना है।।

Sunday 23 December 2012

मुझे मंज़िल की तलाश नहीं!!!


ये सच है,
मुझे मंज़िल की तलाश नहीं! 


क्योंकि, मंज़िलों पर पहुंचकर, 
 बैठ जाते हैं, लोग...
आराम से,
इत्मिनान से,
बेफिक्र!
जैसे, 
करने को कुछ, बचा ही ना हो।

मैं तो चाहता हूँ,
चलना, उन रास्तों पर,
जो जाती तो हो,
मंज़िल की ओर,
पर पहुंचती ना हो!!
क्योंकि, मैं नहीं चाहता,
आराम से बैठ जाना।
चाहता हूँ, भटकते रहना,
अपनी मंज़िल के लिए।।।
ताकि,
ढूँढ सकूँ,
और भी,
अनगिनत,
अनभिज्ञ रास्ते,
जो जाते हों,
मंजिल की ओर।

क्योंकि,
मेरी जिज्ञासा, सिर्फ मंज़िल पाने की नहीं,
बल्कि,
उस तक पहुँचने के,
अनगिनत रास्ते खोजने की है...